मेरे जिस्म के मानचित्र पर
उभर रहे हैं -
बनकर फाफोले
कहीं बेलछी
तो कहीं शेरपुर
कहीं पारस बिगहा
तो कहीं नारायणपुर
इन फफोलों को सहलाने के लिए
मेरे हाथ मेरे पास नहीं हैं
वे तो बहुत पहले
मेरे बाप दादों ने
रख दिए थे गिरवी
किसी सेठ साहूकार की तिजोरी में
दो मुट्ठी चावल के बदले
मेरे जिस्म पर
गोदना सा खुदे
वक़्त की तूफानी हवाओं के प्रहार
चमक रहे हैं
आदी -तिरछी काली -काली रेखाओं में ;
जिसमें बेंतिहान तनहा
दुःख भरे अतीत की पीडा
गहरी वेदना के साथ अंकित है
अपनी सम्पूर्ण तार्किक वर्जनाओं के साथ
किसी प्राइमरी स्कूल की
बदरंग दीवार पर
खुरच दिए गए
प्लास्टर सा मेरा जिस्म
रोशनदान से आती क्षीण सी
सूरज की किरण को रोक कर
समेत लेना चाहता है
तभी पड़ोस में
रामबिरिज का छोटा लल्ला
दूध के लिए रोता है
बदले में थप्पड़ खाकर
चुपचाप सो जाता है
पता नहीं यह कौन सा
समीकरण है
जो दिन से रात
रात से दिन
पल-पल छीन-छीन खीच रहा है
जिस्म से पसीना
स्कूल में मास्टर साहब
मानचित्र में जगह -जगह
रखकर पेन्सिल समझाते हैं
यह है कलकत्ता , बम्बई ,दिल्ली
कानपुर ,नागपुर पूना , बंगलौर
तभी धीरे से
कोई नारायणपुर उभरता है
शेरपुर धधकता है
बेलछी कराहता है
और रातों रात मुझे
दर्दनाक हादसों के समंदर में
धकेल देता है
-ओमप्रकाश वाल्मीकि
Sunday, October 12, 2008
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